Wednesday, January 6, 2010

watsssssss.....upppppppppp........population??????

जनसँख्या जिसकी वृद्धि ,,,विकास दर की वृद्धि, सेंसेक्स की उछाल और उसैन बोल्ट की चाल से भी तेज गति हो रही है। इसका सेंसेक्स कभी नहीं गिरता और यही कारण है कि विश्व की जनसँख्या पांच अरब के पार पहुच गयी है। लेकिन घबराने वाली बात नहीं क्यूंकि ओलंपिक रेस में न सही, जनसँख्या की रेस में हम सिल्वर मेडल के साथ हम दुसरे स्थान पर हैं और चीन गोल्ड के साथ पहले। इसी के साथ चीन पहली दुनिया का विकसित देश बन गया और हम तीसरी दुनिया के विकाशील देश बनकर रह गए। लेकिन इसके पीछे भी एक लॉजिक है -- फायदे और नुक्सान का। फायदा जो कमाया जाता है और नुक्सान जो हो जाता है। साथ ही फायदा जो कमा लें वो हम नहीं ; नुक्सान जो उठा ले वो चीन नहीं। फायदे की बात तो भारत के साथ हो नहीं सकती तो नुक्सान की बात ही कर ली जाए। पहला असर बेसिक नीड़ - यानि रोटी, कपडा, मकान पर पड़ता है। रोटी के लिए खेती की जरूरत पड़ती है और खेती के लिए ज़मीन। जमीन की जरूरत तो रहने के लिए भी पड़ती है। रहने के लिए हम पेड़ काटे हैं, इससे रहने की समस्या तो दूर हो जाती है, लेकिन खाने की समस्या सामने आ जाती है। खाने के लिए कामना पड़ता है, और कमाने के लिए रोजगार, रोजगार के लिए औधिगीकरण और औधोगीकरण के लिए ज़मीन। अपनी ज़मीन हम दे नही सकते लेकिन औधोगीकरण के बिना हम राह भी नहीं सकते। फिर छिड़ती हैं ज़मीन की मार जिसमे मरते हैं किसान हज़ार। कृषि प्रधानता का गुण-गान है फिर भी आत्म हत्या करने वाला किसान है। लोग बढ़ रहे हैं, जमीन घाट रही है, पेड़ कट रहें हैं, प्रदुषण बढ़ रही है, बारिश घाट रही है, जल-वायु बदल रही है, ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है। ग्लोबल वार्मिंग यानी कही सूखा कहीं बाढ़। सूखा में किसान और बाढ़ में गरीब इंसान है परेसान। यूँ तो परेसान सरकार भी है, जनसँख्या मैनेजमेंट की हार से बेरोजगारों की कतार से शिक्षा-व्यवस्था के खस्ता हाल से। खस्ता हाल तो ट्रैफिक व्यवस्था भी है, इसलिए तो हर दिन हर आदमी जाम में फास्ता है। फस तो सरकार भी गयी है -- हर साल डेढ़ करोड़ बेरोजगारों को रोजगार का वादा था तीस लाख रोजगार वालों को मंदी ने बेरोजगार बना दिया यानी पूरे के पूरे तीन करोड़ बेरोजगार उसपर शिक्षा व्यवस्था का खस्ता हाल। "सब पढ़े, सब बढ़ें" का नारा है, विद्यार्थिओं को छत्त भी ना गवारा है, छत्त ना हो तो ना सही कम से कम शिक्षक की हो व्यवस्था, इस पर घूश-खोर नेता है हंसता, कहता खाने से पैसा ही नहीं है बचता। बचत की बात तो बजट में भी न हो पाती है, इस लिए तो मीट-मछली से महंगी दाल आती है। आने की बात की जाये तो आम आदमी के मुह तक खाने का निवाला आ जाता है लेकिन वो इंसान ही भूखा सो जाता है जो इसे उपजता है! सो तो सरकार रही थी जब हर दी बच्चो की पैदाईस पचास हज़ार हो रहे थी ! नींद खुली तो जाना की लडको की बढ़ोतरी और लडकियों की कमी का है जमाना !जमाना तो एड्स से लडाई का भी है, स्कूलों में सेक्स शिक्षा की पढाई का भी है ,रोजगार के लिए मराठी बिहारियों में हो लडाई का भी है ,फिर भी जनसँख्या पर ब्रेक नहीं है लगता!कही कृषि का के नाम पर सिंगुर तो कही कैमिकल हब की चपेट मे नंदीग्राम है जलता !जलते तो नेता भी है लोगो के सरकार् के प्रत्ति आश से राजनितिक घाटे मे हो रहे लोगो के विकास से इसलिए तो सिंगुर नहीं है बस्ता क्यों की नेताओ की लडाई में आम आदमी ही है पिसता !पिसना तो कीड़ो -मकोड़ो की कहानी है क्यों की उसमे कामे थोड़े ही न आनी है ,लेकिन क्या करे ये भारत की कहानी है , हमें नयी चीज़े जो दोहरानी है ,कीड़े मकोड़े बच जाये तो सही लेकिन आम आदमी के दुखो में कमी नही लानी है !लाने की बात की जाये तो हर दर पर विकास लायी जा सकती है ,शिक्षा और प्रकाश लाई जा सकती है ,लोगो के मुह तक अनाज लाई जा सकती है , हर समस्या से समाधान पाई जा सकती है ,तो न बनने दो इसे अभिशाप कमाओ इससे लाभ ,लेकिन कहते है न जो लाभ कमा ले वो वो ..................................??????